Bhagavad Gita Quotes In Hindi | Shrimad Bhagawad Geeta Details |
★★★★★★★★★★★★★★★★★★ “जीत हो या हार दोनों का सम्मान करना सीखें, क्योंकि दोनों में ही ईश्वर की इच्छा होती है।” ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ | ★★★★★★★★★★★★★★★★★★ श्रीमद्भगवत गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो मानव को कर्म करना सिखाता है, जो मनुष्य को धर्म की सही परिभाषा समझाता है। यह एक ऐसा पवित्र ग्रंथ है, जो आपको मोक्ष मार्ग तक ले जाता है। यूँ तो भगवत गीता सनातन हिन्दू वैदिक धरम का आधार है, परंतु आज मानव कल्याण के लिए इस पवित्र ग्रंथ के ज्ञान को दिल खोल कर अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि यही सनातन है, और यही शाश्वत है। ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ |
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श्रीमदभगवदगीता सप्तदश अध्याय सभी श्लोक हिंदी लिरिक्स
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
अर्जुन बोले —
हे कृष्ण जो मनुष्य शास्त्रविधिका त्याग करके
श्रद्धापूर्वक देवता आदिका पूजन करते हैं?
उनकी निष्ठा फिर कौनसी है
सात्त्विकी है अथवा राजसीतामसी
श्री भगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
श्रीभगवान् बोले —
मनुष्योंकी वह स्वभावसे उत्पन्न हुई
श्रद्धा सात्त्विकी तथा राजसी और तामसी —
ऐसे तीन तरहकी ही होती है?
उसको तुम मेरेसे सुनो।
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे भारत
सभी मनुष्योंकी श्रद्धा
अन्तःकरणके अनुरूप होती है।
यह मनुष्य श्रद्धामय है।
इसलिये जो जैसी श्रद्धावाला है?
वही उसका स्वरूप है
अर्थात् वही उसकी निष्ठा — स्थिति है।
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
सात्त्विक
मनुष्य देवताओंका पूजन करते हैं?
राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसोंका
और दूसरे जो तामस मनुष्य हैं?
वे प्रेतों और भूतगणोंका पूजन करते हैं।
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित घोर तप करते हैं जो दम्भ और अहङ्कारसे अच्छी तरह युक्त हैं जो भोगपदार्थ? आसक्ति और हठसे युक्त हैं जो शरीरमें स्थित पाँच भूतोंको अर्थात् पाञ्चभौतिक शरीरको तथा अन्तःकरणमें स्थित मुझ परमात्माको भी कृश करनेवाले हैं उन अज्ञानियोंको तू आसुर निश्चयवाले (आसुरी सम्पदावाले) समझ।
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित घोर तप करते हैं जो दम्भ और अहङ्कारसे अच्छी तरह युक्त हैं जो भोगपदार्थ? आसक्ति और हठसे युक्त हैं जो शरीरमें स्थित पाँच भूतोंको अर्थात् पाञ्चभौतिक शरीरको तथा अन्तःकरणमें स्थित मुझ परमात्माको भी कृश करनेवाले हैं उन अज्ञानियोंको तू आसुर निश्चयवाले (आसुरी सम्पदावाले) समझ।
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
आहार भी सबको तीन प्रकारका प्रिय होता है
और वैसे ही यज्ञ? दान और तप
भी तीन प्रकारके होते हैं
अर्थात् शास्त्रीय कर्मोंमें भी
तीन प्रकारकी रुचि होती है?
तू उनके इस भेदको सुन।
आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
आयु? सत्त्वगुण? बल? आरोग्य?
सुख और प्रसन्नता बढ़ानेवाले? स्थिर रहनेवाले?
हृदयको शक्ति देनेवाले? रसयुक्त तथा चिकने —
ऐसे आहार अर्थात् भोजन करनेके
पदार्थ सात्त्विक मनुष्यको प्रिय होते हैं।
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
अति कड़वे? अति खट्टे? अति नमकीन? अति गरम? अति तीखे? अति रूखे
और अति दाहकारक आहार
अर्थात् भोजनके पदार्थ राजस
मनुष्यको प्रिय होते हैं?
जो कि दुःख? शोक
और रोगोंको देनेवाले हैं।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो भोजन अधपका? रसरहित? दुर्गन्धित?
बासी और उच्छिष्ट है
तथा जो महान् अपवित्र भी है?
वह तामस मनुष्यको प्रिय होता है।
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
यज्ञ करना कर्तव्य है —
इस तरह मनको समाधान करके
फलेच्छारहित मनुष्योंद्वारा जो शास्त्रविधिसे नियत
यज्ञ किया जाता है? वह सात्त्विक है।
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
परन्तु हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन जो
यज्ञ फलकी इच्छाको लेकर
अथवा दम्भ(दिखावटीपन)
के लिये भी किया जाता है?
उसको तुम राजस समझो।
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
शास्त्रविधिसे हीन? अन्नदानसे रहित?
बिना मन्त्रोंके? बिना दक्षिणाके
और बिना श्रद्धाके किये जानेवाले
यज्ञको तामस यज्ञ कहते हैं।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
देवता? ब्राह्मण? गुरुजन
और जीवन्मुक्त महापुरुषका पूजन करना?
शुद्धि रखना? सरलता?,ब्रह्मचर्यका पालन करना
और हिंसा न करना —
यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता है।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
उद्वेग न करनेवाला? सत्य? प्रिय?
हितकारक भाषण तथा
स्वाध्याय और अभ्यास करना —
यह वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है।
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
मनकी प्रसन्नता?
सौम्य भाव? मननशीलता? मनका
निग्रह और भावोंकी शुद्धि —
इस तरह यह मनसम्बन्धी तप कहा जाता है।
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्ित्रविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
परम श्रद्धासे
युक्त फलेच्छारहित मनुष्योंके
दवारा तीन प्रकार(शरीर? वाणी और मन)
का तप किया जाता है?
उसको सात्त्विक कहते हैं।
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो तप सत्कार?
मान और पूजाके लिये
तथा दिखानेके भावसे किया जाता है?
वह इस लोकमें अनिश्चित और
नाशवान् फल देनेवाला तप राजस कहा गया है।
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो तप मूढ़तापूर्वक हठसे अपनेको पीड़ा देकर
अथवा दूसरोंको कष्ट
देनेके लिये किया जाता है?
वह तप तामस कहा गया है।
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
दान देना कर्तव्य है —
ऐसे भावसे जो दान देश?
काल और पात्रके प्राप्त होनेपर
अनुपकारीको दिया जाता है?
वह दान सात्त्विक कहा गया है।
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
किन्तु जो दान प्रत्युपकारके लिये
अथवा फलप्राप्तिका उद्देश्य बनाकर
फिर क्लेशपूर्वक दिया जाता है?
वह दान राजस कहा जाता है।
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो दान बिना सत्कारके तथा
अवज्ञापूर्वक अयोग्य देश और
कालमें कुपात्रको दिया जाता है?
वह दान तामस कहा गया है।
तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
तत् और सत् —
इन तीनों नामोंसे जिस
परमात्माका निर्देश किया गया है?
उसी परमात्माने सृष्टिके आदिमें
वेदों? ब्राह्मणों और यज्ञोंकी रचना की है।
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
इसलिये वैदिक
सिद्धान्तोंको माननेवाले पुरुषोंकी
शास्त्रविधिसे नियत यज्ञ? दान
और तपरूप क्रियाएँ सदा इस
परमात्माके नामका उच्चारण
करके ही आरम्भ होती हैं।
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षि।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
तत् नामसे कहे जानेवाले
परमात्माके लिये ही सब कुछ है —
ऐसा मानकर मुक्ति चाहनेवाले
मनुष्योंद्वारा फलकी इच्छासे रहित होकर
अनेक प्रकारकी यज्ञ और तपरूप क्रियाएँ
तथा दानरूप क्रियाएँ की जाती हैं।
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पार्थ
परमात्माके सत्इस नामका सत्तामात्रमें
और श्रेष्ठ भावमें प्रयोग किया जाता है
तथा प्रशंसनीय कर्मके साथ
सत् शब्द जोड़ा जाता है।
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
यज्ञ? तप और दानरूप
क्रियामें जो स्थिति (निष्ठा) है? वह भी सत् —
ऐसे कही जाती है और
उस परमात्माके निमित्त किया जानेवाला कर्म भी सत् —
ऐसा ही कहा जाता है।
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पार्थ
अश्रद्धासे किया हुआ
हवन? दिया हुआ दान और
तपा हुआ तप तथा
और भी जो,कुछ किया जाय?
वह सब असत् —
ऐसा कहा जाता है।
उसका फल न यहाँ होता है?
न मरनेके बाद ही होता है
अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।
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